2018-06-13 11:13:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय- स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 99-100


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें।

"उन्होंने प्रभु की आज्ञाओं और नियमों का पालन किया। हमारे प्रभु ईश्वर तूने उनकी प्रार्थना सुनी। तूने उन्हें अपराध का दण्ड दिया, किन्तु उन्हें क्षमा भी प्रदान की। हमारे प्रभु ईश्वर को धन्य कहो। उसके पवित्र पर्वत को दण्डवत करो। हमारा प्रभु ईश्वर पवित्र है।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 99 वें भजन के अन्तिम पद। इन्हीं पदों की व्याख्या से विगत सप्ताह हमने पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। 99 वें भजन का रचयिता इस गीत के द्वारा युगयुगान्तर के लोगों का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित कराता है कि प्रभु ईश्वर पवित्र हैं और उनके पवित्र होने का अर्थ हैं मनुष्यों के प्रति ईश्वर का असीम प्रेम और उनकी अपार दया, जैसा कि इसायाह के ग्रन्थ के 49 वें अध्याय के छठवें पद में लिखा है, "मैं तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दूँगा, जिससे मेरा मुक्ति विधान पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाये।"

स्तोत्र ग्रन्थ का 99 वें वाँ भजन स्मरण दिलाता है कि मूसा, हारून तथा समुएल जैसे उस युग के महान ईशभक्त अग्रगणियों ने लोगों की ओर से ईश्वर को अपने तन-मन-धन से पुकारा था और ईश्वर ने उनकी प्रार्थनाएँ सुनी थीं। ईश्वर उनके समक्ष बादलों में प्रकट हुए थे। निर्गमन ग्रन्थ के शब्दों में, "प्रभु दिन में उन्हें रास्ता दिखाने के लिये बादल के खम्बे के रूप में और रात में उन्हें प्रकाश देने के लिये अग्नि स्तम्भ के रूप में आगे-आगे चलता था, जिससे वे दिन में और रात में भी यात्रा कर सकें।" और इस अनुग्रह के लिये मूसा, हारून और सामुएल जैसे पूर्वजों ने प्रण किया था कि वे ईश्वर का परित्याग कभी नहीं करेंगे, उन्हीं में अपने विश्वास की अभिव्यक्ति करेंगे तथा ईश्वर की इच्छानुकूल अपना जीवन यापन करेंगे। एक प्रकार से 99 वें भजन का रचयिता युगयुगान्तर तक के लोगों से अनुरोध कर रहा था कि वे प्रभु ईश्वर में अपना विश्वास मज़बूत करें, ईश्वर को ही धन्य कहें, उनके पवित्र पर्वत के आगे नतमस्तक होवें क्योंकि केवल "प्रभु ईश्वर पवित्र हैं।"   

और अब आइये स्तोत्र ग्रन्थ के 100 वें भजन का पाठ कर इसे समझने का प्रयास करें। पाँच पदों वाला 100 वाँ भजन धन्यवाद के लिये किया गया स्तुतिगान है। इस भजन के शब्द इस प्रकार हैं, "समस्त पृथ्वी प्रभु की स्तुति करो। आनन्द के साथ प्रभु की सेवा करो। उल्लास के गीत गाते हुए उसके सामने उपस्थित हो। यह जान लो कि प्रभु ही ईश्वर हैं। उसी ने हमें बनाया है- हम उसी के हैं। हम उसकी प्रजा उसकी चरागाह की भेड़ें हैं। धन्यवाद देते हुए उसके मन्दिर में प्रवेश करो; भजन गाते हुए उसके प्राँगण में आ जाओ, उसकी स्तुति करो और उसका नाम धन्य कहो। ओह! ईश्वर कितना भला है! उसका प्रेम चिरस्थायी है, उसकी सत्यप्रतिज्ञता युगानुयुग बनी रहती है।"

श्रोताओ, यह भजन केवल बाईबिल धर्मग्रन्थ पढ़नेवालों तक ही सीमित नहीं है अपितु यह सम्पूर्ण विश्व के सब लोगों को आमंत्रित करता है कि वे ईश्वर की सेवा में आनन्दित होकर हर्षोल्लास के गीत गायें। वे सब के सब एकत्र होकर ईश्वर के समक्ष भजन गाते हुए पहुँचें। भला ऐसा कैसे हो सकता था? ऐसा तब हो सकता है जब समस्त पृथ्वी के लोग इस तथ्य को जानें कि प्रभु ईश्वर ही सृष्टिकर्त्ता और तारणहार हैं। भजनकार सभी को आमंत्रित करता है कि वे ईश्वर की उपस्थिति में आगे आयें। इसका अभिप्राय सर्वप्रथम तो यह कि वे मन्दिर के चारों ओर से मन्दिर के गर्भग्रह तक ईश्वर की उपस्थिति में एक साथ मिलकर आगे आयें। वस्तुतः, ईश्वर के मन्दिर में प्रवेश करने या ईश्वर की उपस्थिति में प्रवेश करने का तात्पर्य ईश्वर के मुखमण्डल का दर्शन करने से है। दर्शन कर लेने के बाद ही तो भक्त ईश्वर को पहचान पायेगा, ईश्वर की उपस्थिति का एहसास कर पायेगा। इसी भाव में प्रभु येसु ख्रीस्त ने भी कहा था, "जिसने मुझे देखा है उसने पिता के भी दर्शन कर लिये हैं।" इस प्रकार 100 वें भजन में भक्तों को आमंत्रित किया जा रहा था कि वे आयें तथा किसी दूरस्थ देवता की पूजा नहीं करें बल्कि बहुत ही समीप रहनेवाले ईश्वर की स्तुति करें।

श्रोताओ, प्राचीन व्यवस्थान के युग में मिस्र से, मेसोपोटामिया से, सिरिया से तथा अनेक अन्य दूरस्थ स्थलों से तीर्थयात्री दल जैरूसालेम के मन्दिर में आराधना के लिये पहुँचते थे। मन्दिरक के बाहरी द्वार पर इन तीर्थयात्रियों का धर्मविधि के अनुकूल स्वागत किया जाता था और फिर वे एक साथ मिलकर भजन गाते हुए ईश्वर की उपस्थिति में आगे बढ़ते थे। इसी के सन्दर्भ में 100 वाँ भजन रचा गया है। तीर्थयात्रियों के आने पर पुरोहित उनके समक्ष "जान लो कि प्रभु ही ईश्वर हैं" शब्दों का उच्चार करता है जिसके उत्तर में वे इसायाह के ग्रन्थ के इन शब्दों को दुहराते हुए कहते  हैं, "उसने आकाश को स्थापित किया, उसने पृथ्वी की नींव डाली और सियोन से कहा तुम ही मेरी प्रजा हो।" इन शब्दों से तीर्थयात्री स्वतः को याद दिलाते हैं कि वे ईश्वर के हैं। नबी मूसा से ईश्वर ने सिनई पर्वत पर जो शब्द कहे थे, उन शब्दों का वे स्मरण करते तथा ईश्वर को ही सृष्टिकर्त्ता स्वीकार करते हैं।

श्रोताओ, मूसा और हारून में प्रभु ईश्वर ने पुरोहितों का वंश स्थापित किया था ताकि युगयुगान्तर के पुरोहित लोगों के बीच ईश्वर के प्रेम के मध्यस्थ बने रहें। इसी परम्परा को जारी रखते हुए ईश पुत्र येसु ख्रीस्त ने महापुरोहित बनकर पवित्र यूखारिस्त की स्थापना की ताकि वर्तमान युग के समस्त पुरोहित यूखारिस्तीय बलिदान द्वारा प्रभु ईश्वर के प्रेम का प्रसार अपने लोगों को बीच कर उनमें विश्वास और आशा की लौ जगायें। पुरोहित बुलाये गये हैं कि वे, पीढ़ी दर पीढ़ी,  विश्वासियों को कलीसिया में एकत्र करें, गिरजाघरों में यूखारिस्तीय बलिदाल तथा प्रार्थना सभाओं का नेतृत्व करें तथा सर्वशक्तिमान प्रभु ईश्वर के आदर में धन्यवाद का गीत गाने हेतु सबको आमंत्रित करें।








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