2017-09-25 11:09:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय- स्तोत्र ग्रन्थ, भजन 88


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। ...

"प्रभु! मेरे मुक्तिदाता ईश्वर! मैं दिन-रात तुझे पुकारता हूँ। मेरी प्रार्थना तेरे पास पहुँचे। मेरी दुहाई पर ध्यान देने की कृपा कर। मैं कष्टों से घिरा हुआ हूँ मैं अधोलोक के द्वार पर पहुँचा हूँ।"

ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 88 वें भजन के प्रथम पद। पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत विगत सप्ताह हमने इसी भजन की व्याख्या आरम्भ की थी। इस बात का हम सिंहावलोकन कर चुके हैं कि स्तोत्र ग्रन्थ का 88 वाँ भजन संकट में कोराह के पुत्रों द्वारा की गई प्रार्थना है। भजनकार विलाप करता है, वह शिकायत करता है, अपने मन की परेशानियों का उल्लेख करता है। उसका मन भारी है और उसकी आत्मा दुःखी है। वह अपने पापों के लिये भयभीत है, उसे ईश्वर के कोप से डर है। तथापि, साहस जुटाकर और अपने मन को एकाग्र कर वह प्रार्थना करता है कि प्रभु उसकी सुधि लें। सच तो यह है कि यही सच्चा मार्ग है, यही सही और उचित है। यही है सही दिशा जो मनुष्य को सुख और आनन्द प्रदान करती तथा उसे मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर करती है। वह प्रार्थना करता है कि प्रभु उसे अधोलोक में गिरने से बचा लें।

श्रोताओ का ध्यान हमने इस ओर भी आकर्षित कराया था कि अधोलोक अर्थात् मृत्यु से यहाँ तात्पर्य केवल शारीरिक मृत्यु से नहीं है बल्कि भजनकार के अन्तरमन में अपनी आत्मा को खो देने का डर समाया हुआ है। इस सन्दर्भ में हमने प्राचीन व्यवस्थान के राजाओं के ग्रन्थ में संहिता के बारे में ईश्वर के आदेश पर आपको आलोकित था। संहिता के नियम पर चलनेवाला व्यक्ति ईश्वर और साथ ही पड़ोसी के प्रति वचनबद्ध होता है। वह ईश्वर के आदेशों, उनकी आज्ञाओं और उनके नियमों पर चलते हुए ख़ुद को कृतार्थ करता है। इसीलिये जब कभी भी उससे कोई भूल हो जाती है तब वह ईश्वर की दुहाई देता और उनसे क्षमा की याचना करता है। ऐसा ही व्यक्ति प्रभु ईश्वर का कृपा पात्र बनता है।

88 वें भजन का रचयिता इस बात को स्वीकार करता है कि वह कमज़ोर है, वह भूल करता है, उसने पाप किये हैं किन्तु ईश्वर में अपने विश्वास के कारण उसे इस बात का ज्ञान है कि उसे ईश्वर की सहायता की नितान्त आवश्यकता है।

प्रायः ऐसा भी होता है कि हमारे जीवन की परिस्थितियाँ वैसी नहीं होती जैसा हम चाहते हैं, वे वैसी होती हैं जैसा कि प्रभु ईश्वर की इच्छा होती है। यही स्थिति 88 वें भजन के रचयिता की रही होगी जो अपनी प्रार्थनाओं को अनसुनी पाकर विलाप कर उठता है। आगे भजन के पाँच से लेकर आठ तक के पदों में भी हम भजनकार के विलापकारी शब्दों को सुनते हैं, कहता है, "लोग मेरी गिनती मरनेवालों में करते हैं। मेरी सारी शक्ति शेष हो गयी है। मैं मृतकों में एक जैसा हो गया हूँ, उन लोगों के सदृश, जो कब्र में पड़े हुए हैं, जिन्हें तू याद नहीं करता। तूने मुझे गहरे गर्त में, अन्धकारमय गहराइयों में डाल दिया है। तेरे क्रोध का भार मुझे दबाता है, उसकी लहरें मुझे डुबा ले जाती हैं।"  

श्रोताओ, ख्रीस्तीय इतिहास के अन्तराल में स्तोत्र ग्रन्थ का 88 वाँ भजन असंख्य प्रभु भक्तों एवं सन्तों का गीत रहा है जो अपनी व्यथाओं को प्रभु ईश्वर के समक्ष उसी प्रकार प्रस्तुत करते रहे हैं जैसे एक नन्हा बालक भूख लगने पर अपनी माँ के समक्ष रोता है। उन लोगों का गीत जिन्हें अपने जीवन के किसी खास क्षण में ईश्वर द्वारा परित्यक्त हो जाने का भयावह अनुभव होता है। भजनकार कहता है, "मैं मृतकों में एक जैसा हो गया हूँ, उन लोगों के सदृश, जो कब्र में पड़े हुए हैं, जिन्हें तू याद नहीं करता।" साथ ही 88 वाँ भजन वह गीत है जिसने उन लोगों की प्रार्थनाओं को शब्दों में पिरोया जिन्हें जीवन के किसी न किसी मुकाम पर इस बात का एहसास हुआ कि किसी न किसी बिन्दु पर वे ईश्वर के साथ अपने सम्बन्ध में ग़लत रहे थे।

श्रोताओ, जब हमारे सम्बन्ध अपने भाई, पड़ोसी और ईश्वर से ठीक नहीं रहते तब ही हम भी इसी प्रकार का अनुभव करते हैं। हमें भी लगता है कि हमारा सबने, यहाँ तक कि ईश्वर ने भी परित्याग कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे हम किसी अन्धकारपूर्ण कुएँ में पड़े हैं जहाँ से निकलने का कोई आसरा नहीं है। भजनकार के शब्दों में, "तूने मुझे गहरे गर्त में, अन्धकारमय गहराइयों में डाल दिया है। तेरे क्रोध का भार मुझे दबाता है, उसकी लहरें मुझे डुबा ले जाती हैं।"  

ग़ौर कीजिये, सभी धर्मों के विचारशील लोगों ने स्वतंत्रता को एक खास मूल्य निरूपित किया है। प्रश्न उठता है कि सच्ची स्वतंत्रता है क्या? स्वतंत्र होने का अर्थ है क्या? एक स्पानी कहावत है कि  "ठोस पत्थरों की दीवारों से कारावास नहीं बनता और न ही लौह छड़ियों से पिंजरा।" स्पानी गृहयुद्ध के दौरान कई वामपंथियों ने अपना जीवन हँसते हुए इसलिये न्यौछावर कर दिया था क्योंकि वे जानते थे कि उनके लक्ष्य से बढ़कर कोई और लक्ष्य नहीं हो सकता था। उनका लक्ष्य उनके जीवन से भी श्रेष्ठकर था और इसी अर्थ में वह एक स्वतंत्र व्यक्ति कहा जा सकता है। यूनानी और रोमी इतिहास में भी ऐसे कई महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह किये बिना केवल अपने जीवन के लक्ष्य के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी। हॉलैण्ड के ईशशास्त्री हैन्ड्रिक्स बेर्कहॉफ कहा करते थे, "ये स्त्री-पुरुष "पारलौकिक" थे, वे अपने आदर्शों पर चलने के लिये कृतसंकल्प रहा करते थे और राह में पड़नेवाली हर बाधा को अपने अन्तरमन की अखण्डता के साथ पार करते हुए मृत्यु तक अपने आदर्शों पर खरे उतरते थे।"  88 वें भजन की प्रार्थना हम सबको आमंत्रित करती है कि हम भी सांसारिक इच्छाओं से स्वतंत्र रहकर विनम्रतापूर्वक अपने जीवन की स्थिति के साथ समझौता करें और अपने इस विश्वास को अनवरत सुदृढ़ करते रहें कि प्रभु ईश्वर अवश्य ही हमारी प्रार्थना सुनेंगे, हमारी सुधि लेंगे।








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