2017-06-16 17:13:00

ईश्वर की शक्ति हमें कमज़ोरियों और पापों से बचाती है


वाटिक रेडियो, शुक्रवार, 16 जून 2017(रेई) ईश्वर के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने हेतु हमें अपने को कमजोर, पापी और मिट्टी के पात्र के रुप में देखने की जरूरत है उक्त बातें संत पापा फ्रांसिस ने शुक्रवार को संत मार्था के प्रार्थनालय में अपने प्रातःकालीन मिस्सा बलिदान के दौरान प्रवचन में कही।

संत पापा ने कुरिथिंयों के नाम संत पौलुस के द्वितीय पत्र पर ख्रीस्त के रहस्य का चिंतन प्रस्तुत करते हुए कहा कि ईश्वरीय अमूल्य निधि हमारी क्षणभंगुरता और अतिसंवेदशील मिट्टी के पात्रों में रखी हुई है। उन्होंने कहा, “हम सभी अपने में संवेदनशील, क्षणभंगुर और कमजोर है जिन्हें चंगाई की आवश्यकता है लेकिन संवेदनशीलता को अपने में स्वीकार करना हमारे जीवन का सबसे कठिन कार्य है। बहुत बार हम अपनी इस संवेदनशीलता को शृंगार की चीजों से ढंकने का प्रयास करते हैं जिससे यह दूसरे के सामने प्रकट न हो। उन्होंने कहा कि भेष बदल कर रहना अपने में शर्मनाक है। “यह हमारी पखंडता है।”

उन्होंने इस बात पर बल देते हुए कहा कि इस तरह हम अपने आप को “हम अपने में कुछ हैं” के रुप में पेश करते और अपनी पाखंडता को दूसरे के सामने प्रकट करते हैं। हम अपने में यह दिखलाने की कोशिश करते हैं कि हमें दूसरो की सहायता और चंगाई की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि यह मानव के जीवन में व्यर्थता के मार्ग को उजागर करता है जो अपने में घमंड, अहंकार और आत्म-केन्द्रित होना है और ऐसे लोगों अपने को मिट्टी के पात्र नहीं समझते, वे अपने आप में ही मुक्ति और परिपूर्णता की खोज करते हैं। संत पापा ने कहा कि संत पौलुस कहते हैं कि हमारी भेद्यता या टूटेपन के कारण ही ईश्वर हमें बचाते हैं। अतः हम अपने को मुश्किलों से घिरा पाते लेकिन हम अपने में नष्ट नहीं होते हैं, हम अपने जीवन में हिल जाते लेकिन निराश नहीं होते, हमें प्रताड़ित किया जाता लेकिन हम अपने में परित्यक्त अनुभव नहीं करते हैं। मिट्टी के पात्र और अमूल्य निधि में एक संबंध है। संत पापा ने कहा, “लेकिन हमारे मध्य सदैव यह परीक्षा आती है कि हम अपनी क्षणभंगुरता को अपने में छिपाते की कोशिश करते, हम इसके स्वीकार करना नहीं चाहते हैं। यह हमारा ढ़ोगीपन है।”  

उन्होंने कहा कि जब हम अपनी कमजोरी को स्वीकारते तो ईश्वर हमारे बीच आते और हमें मुक्ति प्रदान करते हैं। इस तरह पापस्वीकार संस्कार के द्वारा हम अपने मिट्टी के पात्र की सफाई करते और इसे मजबूत बनाते हैं। हमें अपनी कमजोरियों और अपनी क्षणभंगुरता को स्वीकारने की जरूरत है यद्यपि यह हमारे लिए “कठिन” जान पड़ता है। उन्होंने कहा कि अपने में “शर्म” का अनुभव करना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। शर्म की अनुभूति हमारे हृदय को विस्तृत करती और हमें ईश्वर के निकट लाती है। यह हमें सोना चाँदी का नहीं वरन मिट्टी की मूरत होने का एहसास देता है और जब हम इसका एहसास अपने जीवन में करते तो ईश्वर की अभूतपूर्व शक्ति हमें मुक्ति, परिपूर्णता, खुशी और आनंद से भर देती है। हम ईश्वर को अपने में “अमूल्य निधि” के रुप में प्राप्त करते हैं।  

 

 








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