2017-06-06 11:08:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय स्तोत्र ग्रन्थ भजन 85 (भाग-2)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"प्रभु हम पर दयादृष्टि कर! हमें मुक्ति प्रदान कर! प्रभु ईश्वर जो कहता है मैं वह सुनना चाहता हूँ। वह अपनी प्रजा को, अपने भक्तों को शान्ति सन्देश सुनाता है जिससे वे फिर कभी पाप न करें।" 

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 85 वें भजन के आठवें एवं नवें पदों के शब्द। विगत सप्ताह हमने इन्हीं पदों की व्याख्या से पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। यह भजन शांति और न्याय की बहाली के लिये प्रार्थना है। इस भजन में भी प्रार्थी प्रभु ईश्वर के अनुपम एवं दयालु कार्यों की याद करता एवं उनसे अपनी मुक्ति की आर्त याचना करता है। प्रार्थी को आशंका है कि प्रभु के कोप के कारण ही उस पर संकट और कठिनाइयाँ आती जा रही हैं इसीलिये प्रार्थना करता हुआ कहता है, "क्या तू सदा हमसे अप्रसन्न रहेगा? क्या तू पीढ़ी दर पीढ़ी अपना क्रोध बनाये रखेगा? क्या तू लौट कर हमें नवजीवन नहीं प्रदान करेगा जिससे तेरी प्रजा तुझमें आनन्द मनायें?" बाईबिल पंडितों के अनुसार 85 वाँ भजन तीर्थयात्रियों का गीत है। वे प्रार्थना करते हैं कि प्रभु उनके पास पुनः लौटें क्योंकि प्रभु ईश्वर की रक्षा एवं सहायता के बिना वे अपनी तीर्थयात्रा में कभी भी सफल नहीं हो सकते थे।

आठवें एवं नवें पदों में तीर्थयात्रियों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देनेवाला उनका उपदेशक मानों उनसे आग्रह करता है कि वे विलाप करना और शिकायत करना बन्द करें और मौन रहकर ईश्वर की बातें सुनें। ईश्वर की दयादृष्टि से ही मुक्ति मिल सकती है इसलिये कहता है, "मैं वह सुनना चाहता हूँ जो ईश्वर कहता है।" उपदेशक तीर्थयात्रियों को परामर्श देता है कि वे ईश राज्य की कल्पना किसी ऐसे राज्य से न करें जिसमें सब सामाजिक एवं आर्थिक सुख सुविधाएँ निहित हों बल्कि ईश राज्य को वे मानव जीवन की अखण्डता, ठोस पारिवारिक मूल्यों, राष्ट्रीय एकता, एकात्मता, न्याय एवं शांति में खोजें। न्याय, आपसी प्रेम एवं शांति से प्रेरित होकर ही मनुष्य पाप न करने की शक्ति प्राप्त करता है इसलिये ईश्वर की आवाज़ सुनने के लिये भक्त अपने मन के कानों को, अपने मन के द्वारों से सदैव खुला रखें।

श्रोताओ, 85 वें भजन में, वस्तुतः, भजनकार लोगों को स्मरण दिलाता है कि उन्होंने अब तक तो केवल अपने शारीरिक दुखों और कष्टों की चिन्ता की थी तथा इनके लिये ईश्वर से प्रार्थना की थी किन्तु समय आ गया था जब उन्हें अपने आध्यात्मिक सुख के बारे में सोचना था। इस्राएलियों ने अब तक जैरूसालेम के खण्डहरों एवं टूटे हुए मन्दिर को देखा था, उनपर विलाप किया था तथा उनके बारे में शिकायतें की थी किन्तु अब समय आ गया था जब वे अपने खण्डरों एवं अपने मन्दिर का जीर्णोद्धार हेतु पुर्ननिर्माण कार्य में लग जायें। तात्पर्य यह कि हम चाहे किसी भी काम को करें, उस काम के केवल आर्थिक पक्ष को ही ध्यान में रखें बल्कि अपने अन्तरमन से ध्यान लगाकर ईश्वर की आवाज़ सुनें तथा उसी के अनुकूल अपने कार्यों का सम्पादन करें।

आगे 85 वें भजन के अन्तिम चार पदों में भजनकार तीर्थयात्रियों को आशावासन देता है कि जो लोग प्रभु ईश्वर पर भरोसा रख निष्ठापूर्वक अपने कार्यों का निर्वाह करते हैं उनके लिये प्रभु ईश्वर की मुक्ति अश्वयंभावी है। ये पद इस प्रकार हैं, "उसके श्रद्धालु भक्तों के लिये मुक्ति निकट है। उसकी महिमा हमारे देश में निवास करेगी। दया और सच्चाई, न्याय और शांति एक दूसरे से मिल गये। सच्चाई पृथ्वी पर पनपने लगी, न्याय स्वर्ग से दयादृष्टि करता है। प्रभु हमें सुख-शांति देता है और पृथ्वी अपनी फ़सल उत्पन्न करती है। न्याय प्रभु के आगे-आगे चलता है और शान्ति उसका अनुगमन करती है।"   

इन पदों में, श्रोताओ, उपदेशक वास्तव में ईश वचन के प्रस्तोता की भूमिका निभा रहा था। एक बात ध्यान देने योग्य यह कि सभी पद भूतकाल में न होकर अपितु वर्तमान काल में लिखे गये हैं। उपदेशक आँखों देखी नहीं बता रहा था बल्कि वह विश्वास से परिपूरित होकर बोल रहा था। वह कह रहा था कि ईश्वर अपनी प्रतिज्ञा, अपनी प्रसंविदा पर सुदृढ़ हैं, ईश्वर ने सदैव अपनी प्रतिज्ञा के अनुकूल अपने लोगों की सुधि ली तथा उनसे प्यार किया। ईश्वर अपनी प्रसंविदा के प्रति सत्यनिष्ठ हैं तथा ईश प्रजा के प्रति उनकी दृढ़ता एवं प्रसंविदा के प्रति उनकी सत्यनिष्ठता अब इतिहास के इस बिन्दु पर प्रकाशित हो चुकी थी। और इसालिये 12 वें एवं 13 वें पदों में कहता है, "सच्चाई पृथ्वी पर पनपने लगी, न्याय स्वर्ग से दयादृष्टि करता है। प्रभु हमें सुख-शांति देता है और पृथ्वी अपनी फ़सल उत्पन्न करती है।" सरल शब्दों में यह था "ईशराज्य का विवरण!" उपदेशक बारम्बार दुहराता है कि ईशराज्य है, सच्चाई, न्याय, प्रेम और शान्ति। श्रोताओ, एक यहूदी रहस्यवादी लेखक कहा करते थे, "प्रार्थना वह क्षण है जब स्वर्ग और पृथ्वी एक दूसरे का आलिंगन करते हैं।"  

85 वें भजन का उपदेशक इस बात की ओर ध्यान आकर्षित कराता है कि प्रसंविदा का पहला अभिनायक स्वयं ईश्वर हैं और दूसरा अभिनायक बनी ईश प्रजा यानि इस्राएल। वह घोषित करता है कि सत्यनिष्ठता मानव मन से प्रस्फुटित होती है, कहता है, "प्रभु हमें सुख-शांति देता है और पृथ्वी अपनी फ़सल उत्पन्न करती है।" यहाँ पृथ्वी ईश प्रजा है। अन्तिम पद में कहता है, "न्याय प्रभु के आगे-आगे चलता है और शान्ति उसका अनुगमन करती है।" तात्पर्य यह कि जहाँ-जहाँ न्याय होगा वहाँ-वहाँ प्रभु होंगे और शान्ति उनका अनुगमन करेगी। श्रोताओ, शांति की आशा केवल लौहदण्ड से युद्धों को रोककर नहीं की जा सकती इसके लिये आवश्यक है न्याय की स्थापना करना। प्रत्येक को न्याय दिलाना। जहाँ कहीं भी अन्याय होगा वहाँ अशान्ति बनी रहेगी जबकि न्याय के ठोस आधार पर शांति का किला खड़ा किया जा सकता है और यह तब ही हो सकता है जब हम एक दूसरे को अपने समान प्यार करें। सन्त पौल प्रभु येसु के प्रकाश में इस विषय पर कुरिन्थियों को प्रेषित  पहले पत्र के 13 वें अध्याय के 13 वें पद में लिखते हैं, "अभी तो विश्वास, भरोसा और प्रेम ये तीनों बने हुए हैं किन्तु उनमें से प्रेम ही सबसे महान है।"








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