2017-05-30 11:43:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय स्तोत्र ग्रन्थ भजन 85


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"प्रभु! तूने अपने देश पर कृपादृष्टि की, तूने याकूब को निर्वासन से वापस बुलाया, तूने अपनी प्रजा के अपराध क्षमा किये, तूने उसके सभी पापों को ढक दिया। तेरा रोष शान्त हो गया, तेरी क्रोधाग्नि बुझ गयी। हमारे मुक्तिदाता प्रभु! हमारा उद्धार कर। हम पर से अपना क्रोध दूर कर।" 

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 85 वें भजन के प्रथम पदों के शब्द। विगत सप्ताह हमने इन्हीं पदों की व्याख्या से पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। स्तोत्र ग्रन्थ के 84 वें भजन में हमने प्रभु ईश्वर की क्षमा और इसे नववर्ष के महापर्व की आशीष रूप में ग्रहण करने की क्रिया को सम्पादित होते देखा जबकि 85 वें भजन में हम ईश्वर के रचनात्मक प्रेम से परिचित होते हैं। ईश्वर ने याकूब को निर्वासन से वापस बुलाकर इस्राएल के पुनर्वास को मूर्तरूप प्रदान किया था। प्रभु ने अपने लोगों को आश्वस्त किया, उन्हें सान्तवना दी, उन्हें निर्वासन से घर वापस बुलाया। इतना ही नहीं अपनी प्रजा के प्रति ईश्वर का क्रोध समाप्त हो गया था।

वस्तुतः, स्तोत्र ग्रन्थ का 85 वाँ भजन शांति और न्याय की बहाली के लिये प्रार्थना है। इस भजन में भी प्रार्थी प्रभु ईश्वर के अनुपम एवं दयालु कार्यों की याद करता एवं उनसे अपनी मुक्ति की आर्त याचना करता है। इस बात का हम सिंहावलोकन कर चुके हैं कि 85 वें भजन को कोराह के पुत्रों का गीत भी कहा गया है जो इब्रानी बाईबिल के अनुसार मूसा एवं हारून के रिश्तेदार थे। इस भजन के प्रथम पद हमें बाबुल से सियोन तक की लम्बी तीर्थयात्रा का स्मरण दिलाते हैं जो इस्राएल के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण थी और अपनी इस लम्बी और कठिन तीर्थयात्रा के दौरान  कई बार ईश भक्तों को यह महसूस हुआ कि उनकी कठिनाइयों और उनके संकट का प्रमुख कारण प्रभु ईश्वर का कोप था। इसी वजह से वे प्रार्थना में आगे के पदों में कहते हैं, "क्या तू सदा हमसे अप्रसन्न रहेगा? क्या तू पीढ़ी दर पीढ़ी अपना क्रोध बनाये रखेगा? क्या तू लौट कर हमें नवजीवन नहीं प्रदान करेगा जिससे तेरी प्रजा तुझमें आनन्द मनायें?" 

श्रोताओ, इस स्थल पर हमने आपको एज़्रा के ग्रन्थ में निहित फारस के राजा द्वारा, ईसा पूर्व 538 वें वर्ष में इस्राएलियों के वापस घर लौटने की राजाज्ञा के बारे में बताया था। उसने समस्त निर्वासित यहूदियों को अपने घर "यूदा" लौटने की अनुमति प्रदान की थी और इस वापसी यात्रा में लोगों को अनेकानेक कष्ट भोगने पड़े थे। इसी के सन्दर्भ में 85 वें भजन के प्रार्थी असमंजस में पड़े हैं कि प्रभु का क्रोध उनपर अब तक क्यों बरकरार था? वे प्रार्थना करते हैं कि प्रभु उनके पास पुनः लौटें और उन्हें नवजीवन प्रदान करें जिससे ईशप्रजा प्रभु में आनन्द मना सके क्योंकि प्रभु  ईश्वर की रक्षा एवं सहायता के बिना वे अपनी तीर्थयात्रा में कभी भी सफल नहीं हो सकते थे।

आगे 85 वें भजन के आठवें एवं नवें पदों में भी तीर्थयात्री अपनी प्रार्थना को जारी रखते हुए कहते हैं, "प्रभु हम पर दयादृष्टि कर! हमें मुक्ति प्रदान कर! प्रभु ईश्वर जो कहता है मैं वह सुनना चाहता हूँ। वह अपनी प्रजा को, अपने भक्तों को शान्ति सन्देश सुनाता है जिससे वे फिर कभी पाप न करें।" 

इन पदों में मानों तीर्थयात्रियों का उपदेशक उनसे कहता है कि वे अपना मुँह बन्द रखें और मौन रहकर ईश्वर की बातें सुनें। ईश्वर की दयादृष्टि से ही मुक्ति मिल सकती है इसलिये कहता है, "मैं वह सुनना चाहता हूँ जो ईश्वर कहता है।" कहता है कि ईश्वर की आवाज़ सुनना ज़रूरी है क्योंकि ईश्वर अपने भक्तों को शान्ति का सन्देश देते हैं तथा उन्हें फिर कभी पाप में न पड़ने की शक्ति प्रदान करते हैं। मानों उपदेशक तीर्थयात्रियों से कहता है कि तुम ईश राज्य की कल्पना किसी ऐसे राज्य से करते हो जिसमें सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर सब सुख सुविधाएँ हों किन्तु ईश्वर का राज्य तो शान्ति का राज्य है। वह मानव जीवन की अखण्डता, ठोस पारिवारिक मूल्यों, राष्ट्रीय एकता एवं एकात्मता का राज्य है। वह ऐसा राज्य है जहाँ सभी लोग एक दूसरे की मदद को तत्पर रहा करते हैं तथा अन्यों के सुख में अपना सुख मानते हैं। ईश्वर की शान्ति एवं उनके प्रेम से प्रेरित होकर ही मनुष्य पाप न करने की शक्ति प्राप्त करता है इसलिये ईश्वर की आवाज़ सुनने के लिये भक्त अपने मन के कानों को, अपने मन के द्वारों से सदैव खुला रखें।

श्रोताओ, 85 वें भजन में, वस्तुतः, भजनकार लोगों को स्मरण दिलाता है कि उन्होंने अब तक तो केवल अपने शारीरिक दुखों और कष्टों की चिन्ता की थी तथा इनके लिये ईश्वर से प्रार्थना की थी किन्तु समय आ गया था जब उन्हें अपने आध्यात्मिक सुख के बारे में सोचना था। इस्राएलियों ने अब तक जैरूसालेम के खण्डहरों एवं टूटे हुए मन्दिर को देखा था किन्तु अब समय आ गया था जब वे अपने खण्डरों एवं अपने मन्दिर का जीर्णोद्धार हेतु पुर्ननिर्माण कार्य में लग जायें। श्रोताओ, इस सन्दर्भ में हग्गय के ग्रन्थ के पहले अध्याय के सातवें पद में लिखा है, "विश्वमण्डल का प्रभु कहता है, तुम अपनी स्थिति पर विचार करो। पहाड़ी प्रदेश जाकर लकड़ी ले आओ और मन्दिर फिर बनाओ।" और फिर नवें पद में, "विश्व मण्डल का प्रभु कहता है कि मेरा मन्दिर ध्वस्त पड़ा हुआ है, जबकि तुम सब अपने-अपने मकान बनाने में व्यस्त हो।" आगे भी 13 वें पद में लिखा है कि नबी हग्गय ने लोगों को प्रभु का सन्देश सुनाया और यह कहते हुए कि प्रभु सदैव उनके साथ हैं उन्हें प्रोत्साहन दिया और प्रेरित किया कि वे ईश्वर का सन्देश सुनें तथा शान्ति का राज्य स्थापित करें। 14 वें पद में हम पढ़ते हैं कि नबी हग्ग्य के मुख से ईश्वर का सन्देश सुन लेने के बाद , "वे उपस्थित हुए और उन्होंने विश्वमण्डल के प्रभु के मन्दिर का पुनर्निर्माण कार्य आरम्भ किया। श्रोताओ, कहने का तात्पर्य यह कि हम चाहे किसी भी काम को करें, उस काम के केवल आर्थिक पक्ष को ही ध्यान में रखें बल्कि अपने अन्तरमन से ध्यान लगाकर ईश्वर की आवाज़ सुनें तथा उसी के अनुकूल अपना जीवन यापन करें।








All the contents on this site are copyrighted ©.