2017-05-23 10:43:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय स्तोत्र ग्रन्थ भजन 84-85


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"विश्वमण्डल के प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन। याकूब के ईश्वर! ध्यान देने की कृपा कर। ईश्वर, हमारे रक्षक, हमारी सुधि ले, अपने अभिषिक्त पर दया दृष्टि कर। हज़ार दिनों तक कहीं रहने की अपेक्षा एक दिन तेरे प्राँगण में बिताना अच्छा है।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 84 वें भजन के नवें एवं दसवें पदों के शब्द। विगत सप्ताह हमने इन्हीं पदों की व्याख्या से पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम शुरु किया था। इस तथ्य पर हम ग़ौर कर चुके हैं कि स्तोत्र ग्रन्थ का 84 वाँ भजन तीर्थयात्राओं के दौरान गाया जानेवाला गीत है। इसमें जीवन दान के लिये ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन तथा प्रभु की स्तुति निहित है। सियोन पर्वत पर जैरूसालेम के मन्दिर में पहुँचने के बाद तीर्थयात्री अपने लिये अथवा अपने परिजनों के लिये विनती नहीं करते अपितु उनके राजा और शासक के लिये प्रार्थना करते हैं। राजा लोगों का रक्षक तथा ईश्वर द्वारा अभिषिक्त व्यक्ति था क्योंकि ईश्वर ने उसे मनुष्यों के बीच अपने कार्यों को सम्पादित करना चाहा था। इस स्थल पर हमने आपका ध्यान इस ओर भी आकर्षित कराया था कि नवीन व्यवस्थान के प्रथम शब्दों में, "येसु ख्रीस्त को, "दाऊद के पुत्र" अथवा "दाऊद के वंशज" कहकर पुकारा गया है। दाऊद राजा एवं ईश्वर द्वारा अभिषिक्त व्यक्ति था।

तदोपरान्त, भजन के अन्तिम तीन पदों में तीर्थयात्री प्रभु ईश्वर में अपने विश्वास की अभिव्यक्ति कर कहते हैं कि उन्हें केवल ईश्वर पर ही भरोसा है। कहते हैं, "दुष्टों के शिविरों में रहने की अपेक्षा ईश्वर के मन्दिर की सीढ़ियों पर खड़ा होना अच्छा है; क्योंकि ईश्वर हमारी रक्षा करता और हमें कृपा तथा गौरव प्रदान करता है। वह सन्मार्ग पर चलने वालों पर अपने वरदान बरसाता है। विश्वमण्डल के प्रभु! धन्य है वह, जो तुझपर भरोसा रखता है।"    

इन पदों में "प्राँगण", "शिविर"  और साथ ही "मन्दिर की सीढ़ियाँ", आदि शब्दावली का उपयोग कर भजनकार ने इस तथ्य को प्रकाशित करना चाहा है कि जीवन एक अनवरत जारी तीर्थयात्रा है और मनुष्य की इस तीर्थयात्रा में उसकी ढाल, उसके रक्षक, उनके गढ़ एवं उसके शरणस्थल बनते हैं केवल प्रभु ईश्वर। 84 वें भजन के शब्दों में, "क्योंकि ईश्वर हमारी रक्षा करता और हमें कृपा तथा गौरव प्रदान करता है। वह सन्मार्ग पर चलने वालों पर अपने वरदान बरसाता है।"

84 वें भजन के अन्तिम पद में ईश्वर के प्रति आश्चर्य और आनन्द भरी एक अभिव्यक्ति मिलती है। इसमें प्रभु पर अपने विश्वास को सुदृढ़ करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इस बात को रेखांकित किया गया है कि यदि हम, यदि मनुष्य, मानव प्राणी, स्त्री और पुरुष प्रभु पर भरोसा रखते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ें तो, निश्चित्त रूप से, हमारे हृदय सुख और आनन्द की अनुभूति प्राप्त करेंगे, "विश्वमण्डल के प्रभु! धन्य है वह, जो तुझपर भरोसा रखता है।"

अब यदि स्तोत्र ग्रन्थ के 85 वें भजन पर दृष्टिपात करें तो यह भजन शांति और न्याय की बहाली के लिये प्रार्थना है। इस भजन में भी प्रार्थी प्रभु ईश्वर के अनुपम एवं दयालु कार्यों की याद करता एवं उनसे अपनी मुक्ति की आर्त याचना करता है। 85 वें भजन के प्रथम पाँच पद इस प्रकार हैं, "प्रभु! तूने अपने देश पर कृपादृष्टि की, तूने याकूब को निर्वासन से वापस बुलाया, तूने अपनी प्रजा के अपराध क्षमा किये, तूने उसके सभी पापों को ढक दिया। तेरा रोष शान्त हो गया, तेरी क्रोधाग्नि बुझ गयी। हमारे मुक्तिदाता प्रभु! हमारा उद्धार कर। हम पर से अपना क्रोध दूर कर।" 

श्रोताओ, स्तोत्र ग्रन्थ के 85 वें भजन को कोराह के पुत्रों का गीत भी कहा गया है जो इब्रानी बाईबिल के अनुसार मूसा एवं हारून के रिश्तेदार थे। इस भजन के प्रथम पद हमें बाबुल से सियोन तक की लम्बी तीर्थयात्रा का स्मरण दिलाते हैं जो इस्राएल के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण थी। 84 वें भजन में हमने प्रभु ईश्वर की क्षमा और इसे नववर्ष के महापर्व की आशीष रूप में ग्रहण करने की क्रिया को सम्पादित होते देखा जबकि 85 वें भजन में हम ईश्वर के रचनात्मक प्रेम से परिचित होते हैं। ईश्वर ने याकूब को निर्वासन से वापस बुलाकर इस्राएल के पुनर्वास को मूर्तरूप प्रदान किया था। प्रभु ने अपने लोगों को आश्वस्त किया, उन्हें सान्तवना दी, उन्हें निर्वासन से घर वापस बुलाया। इतना ही नहीं अपनी प्रजा के प्रति ईश्वर का क्रोध समाप्त हो गया था।

श्रोताओ, 85 वें भजन में प्रार्थी प्रश्न करते हैं कि जब प्रभु की क्रोधाग्नि बुझ चुकी थी तब क्यों उन्हें महसूस हुआ कि प्रभु की कृपा से अब तक वे वंचित थे, कि प्रभु का रोष, उनका कोप अब भी बना हुआ था? इसलिये वे प्रार्थना में आगे के पदों में कहते हैं, "क्या तू सदा हमसे अप्रसन्न रहेगा? क्या तू पीढ़ी दर पीढ़ी अपना क्रोध बनाये रखेगा? क्या तू लौट कर हमें नवजीवन नहीं प्रदान करेगा जिससे तेरी प्रजा तुझमें आनन्द मनायें?" 

श्रोताओ, बाईबिल धर्मग्रन्थ में निहित एज़्रा के ग्रन्थ में हम फारस के राजा द्वारा, ईसा पूर्व 538 वें वर्ष में इस्राएलियों के वापस घर लौटने की राजाज्ञा के बारे में पढ़ते हैँ। फारस के राजा ने समस्त निर्वासित यहूदियों को अपने घर "यूदा" लौटने की अनुमति प्रदान की थी और इस वापसी यात्रा में लोगों को अनेकानेक कष्ट भोगने पड़े थे किन्तु हर पग पर उन्हें ईश्वर की रक्षा एवं सहायता का सुखद अनुभव प्राप्त हुआ था। इसी के सन्दर्भ में 85 वें भजन के प्रार्थी असमंजस में पड़े हैं कि प्रभु का क्रोध उनपर अब तक क्यों बरकरार था? वे प्रार्थना करते हैं कि प्रभु उनके पास पुनः लौटें और उन्हें नवजीवन प्रदान करें जिससे ईशप्रजा प्रभु में आनन्द मना सके। 








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