2017-05-17 16:04:00

आदिवासी धर्माध्यक्षों द्वारा भारतीय राष्ट्रपति के हस्तक्षेप की मांग


नई दिल्ली, बुघवार 17 मई 2017 (उकान) :  भारतीय आदिवासी धर्माध्यक्षों ने लाखों आदिवासियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हस्तक्षेप की मांग की है।

नई दिल्ली के भारतीय काथलिक धर्माध्यक्षीय सम्मेलन केंद्र में आदिवासी धर्माध्यक्षों की आदिवासियों के जमीन समस्याओं और अन्य मुद्दों पर दो दिवसीय बैठक हुई। बैठक सम्पन्न होने के बाद अगले दिन 10 मई को उन्होंने राष्ट्रपति को एक ज्ञापन भेजा।

छह राज्यों के आदिवासी धर्माध्यक्षों द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन में कहा गया है कि वे अत्यंत दुःखी हैं क्योंकि राज्य सरकारों की नीतियों ने आदिवासियों के अधिकारों को कुचल दिया है।

वे राष्ट्रपति महोदय से अपील करते हैं कि वे आदिवासियों की जमीन, जंगल और सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का रक्षा करें। धर्माध्यक्षों ने कहा कि अधिकांश आदिवासियों के लिए भूमि ही जीविका का एकमात्र साधन है। उनमें से 90 प्रतिशत आदिवासी उनकी पैतृक भूमि में कृषि या संबंधित गतिविधियों पर निर्भर रहते हैं।

वर्तमान में संघीय और अन्य राज्य सरकारों ने भारी पैमाने पर उद्योगपति को सुविधा देने के लिए आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल करने के लिए विभिन्न कार्य-कलाप शुरु कर दिया है।

उदाहरण के तौर पर, हाल ही में झारखंड सरकार ने दो कानूनों को संशोधन किया है जो कि आदिवासियों के लिए कृषि हेतु प्रयोग में लाई जाने वाली भूमि के संरक्षण की गारंटी देती है। सरकार ने उनकी भूमि को गैर कृषि भूमि के रूप में घोषित कर दिया है। चूँकि गैर-कृषि भूमि सुरक्षात्मक कानून के दायरे में नहीं आता है जिससे आदिवासियों को अपदस्थ किया जा सकता है।

एक बार इन आदिवासियों से जमीन छिन गई तो भारत में आदिवासियों की पहचान सदा के लिए उसी प्रकार समाप्त हो जाएगी जैसा पिछली सदियों में संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, अस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में हुआ था।

उन्होंने कहा कि बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्यों के आदिवासी जिलों में चल रहा है और "इन जिलों के आदिवासी भी हमेशा के लिए खो जाएँगे।"

संघीय सरकार ने 2006 में वन अधिकार अधिनियम (अनुसूचित जनजाति और प्रथागत वन में रहने वाले लोग) आदिवासी लोगों के अधिकारों को बहाल करने का वादा किया कि उनकी भूमि समुदाय के स्वामित्व वाली होगी। हालांकि, प्रावधानों को अभी तक लागू नहीं किया गया है।

कथित रूप से आदिवासी हितों की रक्षा के लिए ही झारखंड राज्य 2000 में बनाया गया था, फिर भी सरकार ने प्रवासियों को राज्य में आने और रहने की छूट दे दी है। राज्य प्रवासियों से भर गया है और इससे आदिवासियों की भाषाएँ, रीति-रिवाज और परंपराओं के लुप्त होने के खतरे हैं।

 हालांकि भारतीय संविधान धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपने स्वयं की शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन करने के लिए अधिकार की गारंटी देता है, झारखंड सरकार कलीसिया से प्रबंधित स्कूलों के मामलों में दखल देती रही है।

काथलिक कलीसिया झारखंड में 900 से अधिक संस्थान चलाती है। हालांकि, राज्य के अधिकारियों ने कर्मचारियों की नियुक्ति में अनेक शर्तें लगाई, सरकारी अनुदान को बंद किया और अपने स्वयं के पाठ्यक्रम को थोप दिया गया।

उन्होंने कहा, "हमारी संस्थानों ने राष्ट्र-निर्माण के लिए इतना योगदान दिया है पर अब हम इसके प्रशासन में बेहद कठिनाईयों का सामना कर रहे हैं।″  

ज्ञापन में विशेष कर झारखंड में ख्रीस्तीयों के उत्पीड़न के बारे में भी कहा गया है। हाल ही में राज्य पुलिस ख्रीस्तीय गिरजाघरों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए एक अभियान शुरू किया और पादरियों के बारे में उनकी राजनीतिक झुकाव, चरमपंथी गुटों, बैंक खाते और आय के संबंध में एक प्रश्नावली भेज दिया। 

प्रश्नावली देखने से ऐसा लगता था, "कि सभी ख्रीस्तीय कलीसिया और उनके संस्थान राष्ट्रीय विरोधी और आपराधिक गतिविधियों में लगे हुए हैं। इससे ख्रीस्तीयों के बीच असुरक्षा और भय की भावना समा गई।"

सुप्रीम कोर्ट के वकील एम पी राजू, जो कानूनी मुद्दों पर धर्माध्यक्षों को सूचित करते हैं, ने कहा "हम नेताओं के रुप में आदिवासियों को जगाने और अनुप्राणित करने में विफल रहे हैं और अब इन मुद्दों को गंभीरता से लेने की जरूरत है।"

वकील राजू ने धर्माध्यक्षों से कहा, "जो हुआ उसे भूल कर, आइये हम नए सिरे से शुरू करते हैं अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।"








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