2017-02-16 11:01:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय, स्तोत्र ग्रन्थ भजनः 80, भाग 2


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"तू जो इस्राएल का चरवाहा है, हमारी सुन, जो भेड़ों की तरह युसूफ़ को ले चलता है, जो स्वर्गदूतों पर विराजमान है, एफ़्रईम, बेनयामीन और मनस्से के सामने अपने को प्रकट कर। अपने सामर्थ्य को जगा और आकर हमारा उद्धार कर।" 

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 80 वें भजन के प्रथम पद। इन पदों के पाठ से ही हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम समाप्त किया था। इस बात की ओर हमने आपका ध्यान आकर्षित कराया था कि 80 वें भजन के साथ ही हम ऐतिहासिक तौर पर एक शताब्दी पीछे लौट आते हैं और उस युग पर दृष्टिपात करते हैं जब वर्ष 721 ईसा पूर्व, इस्राएल की भूमि एफ़्रईम, बेनयामीन और मनस्से के क्षेत्रों में विभाजित थी तथा युसूफ़ के नाम से चलती थी। उस युग में उत्तर की जातियाँ अस्सिरियाई लोगों द्वारा निष्कासित कर दी गई थीं। 80 वें भजन में इस्राएल के निष्कासित लोग प्रभु ईश्वर को पुकारते हैं।

इस भजन की प्रस्तावना में हमने श्रोताओ का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था कि प्राचीन व्यवस्थान के युग में तीन चरणों में इस्राएली जाति को निष्कासन की पीड़ा भोगनी पड़ी थी, प्रथन चरण था 721 ईसा पूर्व, द्वितीय चरण 597 ईसा पूर्व, और अन्त में 587 ईसा पूर्व। इन वर्षों के अन्तराल में सम्पादित ऐतिहासिक घटनाएँ हमारे समक्ष कई सवाल खड़े करती हैं। उस युग की भयावह परिस्थितियों का विवरण प्रदान कर ये उत्तरों की मांग करती हैं। उसी प्रकार जैसे हम प्रभु येसु मसीह के दुखभोग और क्रूस मरण के विषय में अनगिनत प्रश्नों के उत्तरों की अपेक्षा करते हैं। सच तो यह है कि यदि मानवीय दृष्टि से देखें तो स्तोत्र ग्रन्थ के भजनों में हमें मानव सम्बन्धों की जटिलता और साथ ही इतिहास की अकथनीय सापेक्षताओं के दर्शन मिलते हैं। 80 वें भजन के प्रथम तीन पदों से स्पष्ट है कि इस्राएल के लोगों ने चाहें वे उत्तर के थे अथवा दक्षिण के प्रभु ईश्वर को अपने पूर्वज युसूफ़ एवं दाऊद के युग से ही अपना गढ़, अपना दुर्ग एवं अपना चरवाहा मान लिया था और उसी नाम से वे उन्हें पुकारते रहे थे।     

श्रोताओ, स्तोत्र ग्रन्थ के 80 वें भजन के प्रथम तीन पद वास्तव में इस्राएलियों की पहली प्रार्थना है। ये संवेदनशील और निष्कासित लोग प्रभु ईश्वर से उसी प्रकार प्रार्थना करते हैं जैसे कि उनके पूर्वज दाऊद ने प्रार्थना की थी। उन्होंने उसी प्रकार ईश्वर को पुकारा था जैसे उत्पत्ति ग्रन्थ के युसुफ़ ने। उत्पत्ति ग्रन्थ के 48 वें अध्याय के 15 वें पद में इस्राएल अपने पुत्र युसुफ़ के लिये इस प्रकार प्रार्थना करता है, "ईश्वर, जिसके मार्ग पर मेरे पुरखे इब्राहीम और इसहाक चलते थे, वह ईश्वर, जो जन्म से लेकर आज तक मेरा रक्षक रहा है, वह दूत जिसने मुझे हर विपत्ति से बचाया है, इन बच्चों को भी आशीर्वाद दे।" और इन्हीं प्रार्थनाओं की वजह से युसुफ़ हर संकट को पार करने में समर्थ बने जैसा कि उत्पत्ति ग्रन्थ के 49 वें अध्याय के 24 वें पद में लिखा है, "याकूब के सर्वशक्तिमान् के सामर्थ्य के कारण, इस्राएल की चट्टान और उसके चरवाहे के नाम के कारण, युसुफ़ का धनुष सुदृढ़ रहा और उसकी समर्थ भुजाएँ तत्पर।"

इस स्थल पर इस बात की ओर ध्यान दिलाना हितकर होगा कि राजा सुलेमान की मृत्यु के बाद वर्ष 921 ईसा पूर्व में उत्तर और दक्षिण के बीच विभाजन हो गया था। राजनैतिक तौर पर दक्षिण का राज्य यूदा का राज्य कहलाता था तथा उत्तर का राज्य इस्राएल। हालांकि, ईशशास्त्र की दृष्टि से सम्पूर्ण ईश प्रजा का नाम इस्राएल ही था, जिसमें उत्तर तथा दक्षिण दोनों राज्य शामिल थे और इस प्रजा के पारलौकिक चरवाहे थे प्रभु ईश्वर। जैसा कि एज़ेकियल के ग्रन्थ के 34 वें अध्याय के 11वें एवं 12 वें पदों में लिखा है, "प्रभु ईश्वर यह कहता है – मैं स्वयं अपनी भेड़ों की सुधि लूँगा और उनकी देखभाल करूँगा। भेड़ों के भटक जाने पर जिस तरह गड़ेरिया उनका पता लगाने जाता है, उसी तरह मैं अपनी भेड़ें खोजने जाऊँगा।"

श्रोताओ, आज यदि हम सन्त लूकस रचित सुसमाचार के 18 वें अध्याय पर ग़ौर करें तो इसके प्रथम आठ पदों में प्रभु येसु मसीह प्रार्थना करने के लिये शिष्यों को प्रोत्साहन देते हैं। प्रभु येसु उस विधवा का दृष्टान्त सुनाते हैं जो न्यायकर्ता को प्रतिदिन तंग किया करती थी ताकि उसे न्याय मिल सके और तंग आकर न्यायकर्ता उसके लिये न्याय की व्यवस्था कर देता है। उसी प्रकार येसु कहते हैं कि यदि हम ईश्वर से अनवरत और सतत प्रार्थना करते हैं तो अवश्य ही हमारी प्रार्थना भी सुनी जाती है। निष्कासन की पीड़ा भोग रही इस्राएली जाति भी प्रभु से अनवरत प्रार्थना करती रही थी।      

80 वें भजन के प्रथम तीन पदों में इस्राएली जाति की पहली प्रार्थना निहित है और आगे के पदों में हम इस्राएली जाति की दूसरी प्रार्थना को पाते हैं। इस भजन के चार से लेकर आठ तक के पद इस प्रकार हैं: "ईश्वर हमारा उद्धार कर। हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे। विश्वमण्डल के प्रभु-ईश्वर! तू कब तक अपनी प्रजा की प्रार्थना को ठुकराता रहेगा? तूने उसे विलाप की रोटी खिलायी और उसे भरपूर आँसू पिलाये। हमारे पड़ोसी हमारे लिये आपस में लड़ते हैं; हमारे शत्रु हमारा उपहास करते हैं। विश्वमण्डल के प्रभु! हमारा उद्धार कर। हम पर दयादृष्टि कर और हम सुरक्षित रहेंगे।" जैसा कि हमने कहा यह 80 वें भजन में निहित यह दूसरी प्रार्थना है। इस प्रार्थना से स्पष्ट है कि इस्राएली प्रजा को प्रार्थना करने के बावजूद ऐसा महसूस हुआ था कि उसके कष्ट और अधिक बढ़ गये थे। इसीलिये वह ईश्वर से प्रश्न कर बैठती है, "तू कब तक अपनी प्रजा की प्रार्थना को ठुकराता रहेगा?"  कहती है कि ईश्वर ने उसे विलाप की रोटी खिलायी और भरपूर आँसू पिलाये यानि वे दिन रात रोते और विलाप करते ईश्वर की दुहाई देते रहे और दूसरी ओर शत्रु उपहास करते रहे। श्रोताओ, बहुत बार हमें भी इसी प्रकार का अनुभव होता है, हम प्रार्थना करते रहते हैं और हमें लगता है कि प्रभु हमारी प्रार्थना को नहीं सुनते हैं जबकि उचित समय और उचित क्षण हमें प्रार्थना का प्रत्युत्तर अवश्य मिलता है क्योंकि ईश्वर के घर भले ही देर हो जाये अन्धेर नहीं हो सकती।








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