2016-12-01 11:48:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय, स्तोत्र ग्रन्थ 78 वाँ भजन (भाग-06)


पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"उन्होंने अपनी रुचि का भोजन मांगा और इस प्रकार प्रभु की परीक्षा ली। उन्होंने ईश्वर की निन्दा करते हुए यह कहा: "क्या ईश्वर मरुभूमि में हमारे लिये भोजन का प्रबन्ध कर सकता है? उसने तो चट्टान पर प्रहार किया और उसमें से जल की नदियाँ फूट निकलीं। किन्तु क्या वह अपनी प्रजा के लिये रोटी और माँस का प्रबन्ध भी कर सकता है?"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 78 वें भजन के 18 से लेकर 20 तक के पद जिनकी व्याख्या  हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत की थी। 78 वें भजन के इन पदों में भजनकार यह दर्शाता है कि ईश्वर की अनुकम्पा प्राप्त करने के बावजूद लोग उन पर भरोसा नहीं रख पाये, इन पदों में वह बताता है कि वे प्रभु के चमत्कारों को देख लेने के बाद भी उनपर विश्वास करने में असफल रहे। आज भी हमारे अपने जीवन में हम ख़ुद यह अनुभव करते हैं कि कई बार सब कुछ मिल जाने पर भी हम धन्यवाद ज्ञापित नहीं करते बल्कि और अधिक की आशा करते हैं। जो हमारे पास है, जो हमें मिला है उसमें सन्तुष्ट नहीं होते तथा अपनी ख़ामियों के लिये भी अन्यों को भला बुरा कहने लगते हैं। फिर ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करना तो बहुत दूर की बात हो गई। उसकी तो जैसे हमें याद ही नहीं आती। प्रायः यह भी समझ लिया जाता है कि जो कुछ मिला है वह तो मिलना ही था तो इसमें माता-पिता ने या फिर ईश्वर ने क्या कमाल कर दिया। ऐसे विचार रखने वालों को ही 78 वें भजन का रचयिता सचेत कराता है। वह मिस्र से निकले लोगों की बातों का स्मरण दिलाकर एक प्रकार से चेतावनी देता है कि उन लोगों की तरह कहीं हम भी प्रलोभन में न पड़ें।  

श्रोताओ, वस्तुतः 78 वें भजन के उक्त शब्दों में लोगों की कृतघ्नता व्यक्त हुई है। प्रभु के महान कार्यों के लिये उनके प्रति धन्यवाद देने के बजाय वे उन्हें केवल कोसते ही नहीं रहे बल्कि उन्होंने उनकी परीक्षा लेने का भी दुस्साहस किया। भजनकार ने हमारे समक्ष इन पदों को रखकर यह दर्शाना चाहा है कि उस युग के लोग अपने जीवन में सम्पादित घटनाओं में ईश्वर के चमत्कारों को देख नहीं पाये थे, एक प्रकार से इन महान कार्यों के प्रति उनकी आँखें अन्धी हो गई थी। जिन घटनाओं से वे गुज़र रहे थे उनमें अर्थ नहीं ढूँढ़ पाये थे। उन्होंने ईश्वर द्वारा प्रदत्त सम्विदा के नियमों को तोड़ा और उनके कार्यों पर प्रश्न उठाये कि कैसे ईश्वर चट्टान से पानी निकाल सकते हैं? कैसे वे सागर से रास्ता निकाल उन्हें पार जाने दे सकते हैं? यह सब कैसे हुआ उनकी समझ से बाहर था, उनकी बुद्धि के परे था। यह सब इसलिये हुआ क्योंकि उनमें विश्वास की कमी थी और विश्वास की कमी ही लोगों में शंकाओं को उत्पन्न करती है। हम प्रभु के हर कार्य पर प्रश्न नहीं उठा सकते। उनपर अटकलें नहीं लगा सकते, उन्हें हम केवल विश्वास की आँखों से परख सकते हैं क्योंकि ईश्वर के रहस्य को समझना मानव बुद्धि के परे है, उनकी लीला अपरमपार है।

आगे, 78 वें भजन के 21 वें और 22 वें पदों में हम पढ़ते हैं: "यह सुनकर प्रभु क्रुद्ध हुआ – याकूब के विरुद्ध अग्नि धधकने लगी इस्राएल के विरुद्ध क्रोध भड़क उठा; क्योंकि वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, उन्हें उनकी सहायता का भरोसा नहीं था।"

भजनकार ने यहाँ अपने मन की व्यथा व्यक्त की है। ईश्वर ने इस्राएलियों को कई चमत्कार दिखाये थे। उन्होंने मिस्र से प्रतिज्ञात देश तक की यात्रा में उनका साथ दिया था, सागर के पानी को अलग कर दिया था ताकि वे आगे बढ़ सकें तथा मिस्र के फराऊन के घुड़सवार उनपर आक्रमण न कर सकें। ईश्वर ने उड़ाड़ प्रदेशों से निकलते समय जंगली जानवरों से उनकी रक्षा की थी तथा उन्हें चट्टान से पानी पिलाया था किन्तु इन सब चमत्कारों के बावजूद वे प्रभु पर भरोसा नहीं रख पाये और यह सब 78 वें भजन के रचयिता की व्यथा का कारण था। इसी व्यथा को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए भजनकार ने लिखा, "प्रभु क्रुद्ध हुआ"। श्रोताओ, प्रभु क्रोध नहीं करते वे तो दयावान हैं, बचानेवाले हैं, वे अनवरत मनुष्य की दीवार बनते, उसकी शरणशिला और उसका दुर्ग बन जाते हैं। अस्तु, स्पष्ट है कि मनुष्यों को प्रभु के महान कार्यों के प्रति सचेत कराने के लिये भजनकार ने इन शब्दों का प्रयोग किया था।

आगे के पदों में भजनकार यह भी दर्शाता है कि इतनी अधिक कृतघ्नता के बाद भी ईश्वर ने उनके भोजन का प्रबन्ध किया। 23 से लेकर 29 तक के पदों में लिखा हैः "प्रभु ने आकाश के बादलों को आदेश दिया, उसने आकाश के द्वार खोल दिये, उसने उनके भोजन के लिये मन्ना बरसाया और उन्हें स्वर्ग की रोटी दी। हर एक ने स्वर्गदूतों की रोटी खायी; प्रभु ने उन्हें भरपूर भोजन दिया। उसने आकाश में पुरवाई चलायी; उसने अपने सामर्थ्य द्वारा दक्खिनी हवा बहायी। उसने उनके लिये धूल की तरह भरपूर मांस और समुद्र के बालू की तरह असंख्य पक्षियों को बरसाया। उसने उनको उनके शिविरों के बीचोंबीच और उनके तम्बुओं के चारों ओर गिराया। वे खाकर तृप्त हो गये, ईश्वर ने न्हें उनकी रुचि का भोजन दिया था।"  

श्रोताओ, यहाँ मन्ना, स्वर्ग की रोटी, धूल की तरह भरपूर मांस और समुद्र के बालू की तरह पक्षियों का बरसना आदि अभिव्यक्तियाँ दृष्टान्तिक भाषा शैली है। पहले ही हमने आपको बता दिया था कि 78 वें भजन का रचयिता दृष्टान्तों में या उदाहरण दे-देकर शिक्षा प्रदान कर रहा था। प्रभु ईश्वर ने उन्हें रोटी खिलाई और वे खाकर तृप्त हुए किन्तु इन प्रकाशनाओं के बावजूद वे अन्धे बने रहे और प्रभु के प्रेम को नहीं समझ पाये क्योंकि, 22 वें पद के अनुसार, "वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, उन्हें उनकी सहायता का भरोसा नहीं था।








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