2016-09-29 11:01:00

पवित्रधर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचयः स्तोत्र ग्रन्थ भजन 77


श्रोताओ, पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम के अन्तर्गत इस समय हम बाईबिल के प्राचीन व्यवस्थान के स्तोत्र ग्रन्थ की व्याख्या में संलग्न हैं। स्तोत्र ग्रन्थ 150 भजनों का संग्रह है। इन भजनों में विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक विषयों को प्रस्तुत किया गया है। कुछ भजन प्राचीन इस्राएलियों के इतिहास का वर्णन करते हैं तो कुछ में ईश कीर्तन, सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन और पापों के लिये क्षमा याचना के गीत निहित हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिनमें प्रभु की कृपा, उनके अनुग्रह एवं अनुकम्पा की याचना की गई है। इन भजनों में मानव की दीनता एवं दयनीय दशा का स्मरण कर करुणावान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वे कठिनाईयों को सहन करने का साहस दें तथा सभी बाधाओं एवं अड़चनों को जीवन से दूर रखें। .........

"विद्रोही एदोम तेरी स्तुति करेगा, हामाथ के बचे हुए लोग तेरे पर्व मनायेंगे। मन्नतें मानो; उन्हें अपने प्रभु ईश्वर के लिये पूरा करो। निकटवर्ती राष्ट्र तेजस्वी प्रभु को भेंट चढ़ाने आयें; क्योंकि वह शासकों का घमण्ड तोड़ता और पृथ्वी के राजाओं को आतंकित करता है।"

श्रोताओ, ये थे स्तोत्र ग्रन्थ के 76 वें भजन के अन्तिम पद जिनकी व्याख्या हमने विगत सप्ताह पवित्र धर्मग्रन्थ बाईबिल एक परिचय कार्यक्रम केअन्तर्गत की थी। इस भजन में भजनकार ने इस तथ्य को रेखांकित करना चाहा है कि ईश्वर का न्याय तब-तब प्रकट हुआ जब-जब ईश प्रजा ने उन्हें पुकारा। बाईबिल प्रकाशना के प्रति सत्यनिष्ठ रहते हुए भजनकार ईश्वर के कार्यों का स्मरण दिलाता है। वह ईश्वर के उद्धारकारी कार्यों का बखान करता तथा उन बातों की याद दिलाता है जब ईश्वर के सामर्थ्य से बुराई को परास्त करने के लिये जलप्रलय हुआ और पृथ्वी भयभीत हो उठी थी। इसीलिये भजन के दसवें पद में कहता है, "ईश्वर! जब तू न्याय करने और दीन-दुखियों का उद्धार करने उठा, जब तूने स्वर्ग में अपना निर्णय सुनाया, तो पृथ्वी भयभीत होकर शांत हो गयी।"

स्तोत्र ग्रन्थ के 76 वें भजन के अन्तिम पदों में हमें याद दिलाया जाता है कि हमारा जीवन हमारी अपनी बपौती अथवा हमारी अपनी सम्पत्ति नहीं है। जीवन ईश्वर द्वारा प्रदत्त वरदान है जिसे हम उन्हीं के आदेशानुकूल व्यतीत करें। उसका किसी प्रकार से दुरुपयोग न करें क्योंकि मानव जीवन ही वह स्थल है जहाँ ईश्वर के प्रेममय कार्य सम्पादित हुआ करते हैं, यही वह स्थल है जहाँ उनके उद्धारकारी कार्यों की प्रकाशना होती है। फिर, अन्तिम पद में भजनकार निर्देश देता है, कहता है, "निकटवर्ती राष्ट्र तेजस्वी प्रभु को भेंट चढ़ाने आयें; क्योंकि वह शासकों का घमण्ड तोड़ता और पृथ्वी के राजाओं को आतंकित करता है।" इस सन्दर्भ में हमने आपका ध्यान इस ओर आकर्षित किया था कि प्रायः राजा, शासक, तानाशाह और राष्ट्राध्यक्ष यही मान बैठते हैं कि उन्हीं पर सबकुछ निर्भर करता है, वे ही अपने राष्ट्रों और देशों के कर्त्ता धर्ता हैं किन्तु 76 वें भजन का रचयिता स्मरण दिलाता है कि यदि शासक और राजा केवल लौहदण्ड से लोगों का दमन करते हैं तो कभी भी ईश्वर के कोप और उनके न्याय से बच नहीं सकते। ईश्वर दीन-दुखियों की सुधि लेते हैं, कहता हैः "ईश्वर शासकों का घमण्ड तोड़ता और पृथ्वी के राजाओं को आतंकित करता है।"  

अब आइये स्तोत्र ग्रन्थ के 77 वें भजन पर मनन-चिन्तन करें। श्रोताओ, 76 वाँ भजन प्रतापी ईश्वर  की वन्दना थी तो 77 वाँ भजन इस्राएल के इतिहास पर विचार करता है। यह भजन हमें प्रार्थना करना सिखाता है। इस भजन के प्रथम छः पद इस प्रकार हैं: "मैं ऊँचे स्वर से ईश्वर को पुकारता हूँ। मैं ईश्वर को पुकारता हूँ, वह मेरी सुनेगा। अपने संकट के दिन में मैं प्रभु को खोजता हूँ। दिन-रात बिना थके उसके आगे हाथ पसारता हूँ। मेरी आत्मा सान्तवना अस्वीकार करती है। मैं ईश्वर को याद करते हुए विलाप करता हूँ। मनन करते–करते मेरी आत्मा शिथिल हो जाती है। तू मेरी आँख लगने नहीं देता। मैं व्याकुल हूँ और नहीं जानता कि क्या कहूँ। मैं अतीत के दिनों पर, बहुत पहले बीते वर्षों पर विचार करता हूँ।"  

श्रोताओ, 77 वें भजन के इन शब्दों में हम संकट में पड़े मानव मन की व्यथा को पाते हैं। मनुष्य तब ही ईश्वर को ऊँचे स्वर से पुकारने लगता है जब उसका संकट गहरा जाता है। जब उस पर कोई कठिनाई आ पड़ती है और उससे निकलने कोई रास्ता नहीं मिलता है। ऐसा ही है 77 वें भजन का प्रार्थी। इस विश्वास के बल पर कि प्रभु ईश्वर उसकी सुनेंगे वह अपने संकट के दिन में प्रभु को खोजता है और कहता है, "दिन-रात मैं बिना थके वह ईश्वर के आगे हाथ पसारता है।" वह इतना व्याकुल है कि नहीं जानता कि उसे क्या कहना चाहिये। वस्तुतः, 77 वें भजन का प्रार्थी लोगों की ओर से अथवा समुदाय की ओर से प्रार्थना नहीं कर रहा था। वह स्वतः की व्यथा को प्रभु ईश्वर के समक्ष रख रहा था। दूसरे शब्दों में 77 वाँ भजन एक अकेले और साधारण व्यक्ति की प्रार्थना है।

बाईबिल पंडितों का मानना है कि स्तोत्र ग्रन्थ के 77 वें भजन के प्रार्थी ने उस समय प्रभु ईश्वर को पुकारा होगा जब उसे अन्य इस्राएलियों के संग-संग वर्ष 587 ई. पूर्व. बाबुल निष्कासित कर दिया गया था। परिणामस्वरूप, उसे खो जाने, अपने घर-परिवार और जीवन यापन के साधनों को खो देने और स्वयं ईश्वर को खो देने का कटु अनुभव प्राप्त हुआ था। वह केवल सान्तवना से सन्तुष्ट नहीं होता और कहता है, "मेरी आत्मा सान्तवना स्वीकार नहीं करती है क्योंकि, छठवें पद में, "मैं अतीत के दिनों पर, बहुत पहले बीते वर्षों पर विचार करता हूँ।" उन बीते वर्षों पर जिनके दौरान प्रभु ईश्वर ने इस्राएल का उद्धार किया था तथा उसे दमनकारियों के हाथों से छुड़ाया था।  

इस भजन के सातवें और आठवें पदों में प्रार्थी कहता हैः "रात को मुझे अपना भजन याद आता है। मेरा हृदय इस पर विचार करता है और मेरी आत्मा यह पूछती हैः "क्या प्रभु सदा के लिये त्यागता है?" प्रार्थी जैरूसालेम में व्यतीत अपने अच्छे दिनों की याद करता है और निष्कासित जीवन पर विलाप कर मानों अपनी स्थिति के लिये ईश्वर को दोषी ठहराता है। उसे लगता है कि वह अपने शहर और अपने देश से ही नहीं अपितु ईश्वर से भी निष्कासित किया जा रहा था। प्रश्न करता हैः "क्या प्रभु सदा के लिये त्यागता है?" उसे विश्वास नहीं होता कि प्रभु ईश्वर भक्त का कभी परित्याग भी कर सकते हैं। इस बात को स्वीकार करने के लिये वह तैयार नहीं है क्योंकि जैसा कि 73 वें भजन में हमने पढ़ा, प्रभु ईश्वर नबी मूसा के द्वारा अपनी प्रजा से स्वयं कहते हैं "मैं तुम्हारे साथ हूँ।"








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